Three of Us Review: कोंकण में एक शहर है,बेंगुला। शहर है या कस्बा पता नहीं ! बहुत दिनो से मन है कि एक बार बेंगुला देख आऊं।
दिपांकर सोचते हुए रुककर बोलता है ‘एकदम अचानक !’ तो शैलजा ठण्डी आवाज में कहती है कि ‘आखिर का तो पता नहीं न ! ’
फिर दो-चार लाइनों की बातचीत। और फिल्म मुंबई की तंग इमारतों से निकलकर दिपांकर और शैलजा के साथ कोंकण के समंदर किनारे आ जाती है।

Three of Us Review, Story

डिमेंसिया से बीमार (एक न्यूरोलाॉजिकल बीमारी जिसमें इंसान आहिस्ता आहिस्ता सब-कुछ भूलने लगता है।) शैलजा अपने बचपन के स्कूल आती है। ताकी सब कुछ भूलने से पहले उन यादों को एक बार फिर जी ले। भूली-बिसरी यादों और टूटे- फूटे वादों के इर्द-गिर्द कहानी दिपांकर, शैलजा और बचपन के दोस्त प्रदीप को लेकर असल जीवन की रफ्तार से बढ़ती है। दिपांकर और प्रदीप के जरिए आहिस्था-आहिस्था शैलजा की कहानी परत दर परत खुलती है। दोनों ही उसके अपने हैं. एक पास्ट है तो दूसरा प्रजेंट. एक सपना है तो दूसरा सच्चाई।

Three of Us Review, Cast

शैलजा देसाई (शैफाली शाह) पूरी फिल्म में दिपांकर (स्वानंद किरकिरे) और प्रदीप (जयदीप अहलावत) पर भारी पड़ी हैं। इसका मुख्य कारण कहानी का शैलजा के इर्द-गिर्द होना है। लेकिन इसका मतलब यह भी नही कि प्रदीप और दिपांकर कमतर रहे। अगर ऐसा होता तो फिल्म उतनी मजबूती से आगे नहीं बढ़ पाती जितना अभी बढ़ती है।

इन तीन किरदारों के अलावा प्रदीप की पत्नी सारिका कामत ( कादंबरी कदम ) भी कई दफा आती-जाती हैं। इस किरदार की ठीक वैसी ही भूमिका है जैसी शैलजा के पति दिपांकर की है। लेकिन इसके बावजूद कुछ मामलों में सारिका दिपांकर से बेहतर रही। क्योंकि शैलजा की खुशी देखकर प्रदीप जब उससे सवाल-जबाव करता है तो उसके अंदर की इन्सिक्योरिटी देखी जा सकती है। वहीं इतना सब होने के बाद भी सारिका में अपने पति के लिए भरोसा दिखता है।

बाकी के किरदारों की बात करें तो शैलजा का बेटा भरत स्क्रीन पर न आकर भी अपनी पहचान छोड़ता है । वहीं प्रदीप की बेटी के कारण झूले का सबसे जरुरी सीन हो पाया। ऐसे ही तमाम छोटे-मोटे किरदार जरुरत के हिसाब से आकर फिल्म को आगे बढ़ाते हैं।

Three of Us Review Hindi

अविनाश अरुण ढावरे (डायरेक्टर) ने बेहद सफाई के साथ कहानी में क्लासिकल डांस को दिखाया है। कोकंड की खूबसूरती के विजुअल्स भरे पड़े हैं। आप आसानी से इन विजुअल्स को फ्रेम करवा सकते हैं। फिल्म में एक भी गाना ऐसा नहीं जो आपको चुबता हो। फिल्म में किरदार कम बोलते हैं। सधे हुए लहजे में नपा-तुला बोलते हैं। इस कारण इमोशन्स पर किरदार की बात पहुंचाने की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। इस मामले में शैलजा, प्रदीप और दिपांकर तीनो ही सफल हुए हैं।

शुरुआत में कहानी स्लो है जिस कारण क्या चल रहा है समझने में थोडी दिक्कत होती है। बाद में कहानी ऐसी हो जाती है कि आसानी से आगे क्या होगा उसे अनुमान लगाया जा सकता है। बाकी बॉलीवुड ड्रामा के तौर पर कहानी बहुत हद तक सफल हुई है। कट टू कट कहा जाए तो बॉलीवुड में ऐसे कम ही ड्रामा हैं जो इस स्तर को छू पाए हैं।

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