Pyaasa Hindi Review : “जला दो इसे, फूंक डालो ये दुनिया, मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया ” बात Pyaasa की हो रही है।
Pyaasa साल 1957 में रिलीज हुई थी, जिसे एक दो साल पहले बनाया गया होगा। आज छह दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका है लेकिन Pyaasa की रिलेवेंसी कम नहीं हुई है।
पहले कहानी से गुजरते हैं फिर बताएंगे आखिर फिल्म आज तक क्यों रिलेवेंट है और लोगों को क्यों देखनी चाहिए।
Pyaasa Hindi Review
कहानी किसे कहते है ?
कहानी विजय यानी गुरुदत्त साहब की है। जो पेशे से शायर है। उसके शब्दों में तालियों की गड़गड़ाहट तो है लेकिन सिक्कों की खनक नहीं।
परिवार छोड़ चुका है, कॉलेज में पड़ता था एक प्रेमिका थी, वो भी लाचारी के चलते अब छोड़ चुकी है, विजय नज्में लिखता है और उन्हें छपवाने के जुगत लगाता है।
नज्में तो नहीं छपती, एक नौकरी मिल जाती है, साथ ही पुरानी प्यार की निशानी भी। दूसरी तरफ एक और किरदार है जो विजय की नज्मों पर निसार हो चुका है।
पुराने प्यार की दस्तक नौकरी खा जाती है और लोगों का लालच विजय का अस्तित्व खा जाता है। लोगों के जमीर को खोजती हुई कहानी आखिर तक पहुंचती है।
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खो जाने को मन करता है …
Pyaasa ब्लैक एंड वाइट एरा की फिल्म है। जिसमें कुछ सीन्स के बाद ब्लैंक पॉइंट भी आते हैं और कई जगहों पर शार्प एडिटिंग की गुंजाइश भी जान पड़ती है, लेकिन फिल्म 50 के दशक की है तो इन चीजों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।
Pyaasa पेस के लिहाज से काफी स्लो है जिसे सब्र के साथ देखना होगा। प्लेबैक स्पीड बढ़ा लें तो और बात है। एक बात और फिल्म स्टेप बाय स्टेप सब कुछ आसानी से नहीं परोसेगी, थोड़ा दिमाग लगाने का मौका भी देगी।
एक्टर के साथ गुरुदत्त प्यासा के डायरेक्टर भी हैं। उन्होंने जो यूनिवर्स तैयार किया है, उसमें कहीं न कहीं दर्शक खुद को डुबो सकता है। अपने आपको कैरेक्टर की कहानी से रिलेट कर सकता है।
एक सीन में विजय खाना खा रहा होता है और मेहनत से कमाया सिक्का खोटा निकल जाता है। मां की मौत का सीक्वेंस, जैसे सीन्स काफी रिलेटेबल लगते हैं।
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साहिर साहब के शब्द
फिल्म का संगीत सचिन देव बर्मन साहब ने तैयार किया है। उनकी धुनों को शब्द साहिर लुधियानवी साहब ने दिए हैं।
Pyaasa में गानों के माध्यम से सीरियस मोमेंट को पॉइंट आउट किया गया है। बात पहले जिन्हें नाज़ है हिंद पर की, गाना शुरू होने से पहले मुजरा चल रहा है और बैकग्राउंड में नाचने वाली का बच्चा जोर-जोर से रो रहा है, लेकिन वह नाच बीच में छोड़कर बच्चे के पास नहीं जा सकती।
सीन के आखिर तक विजय की आंखें आंसू से भर चुकी होती हैं। इसके बाद तवायफों की गली में फिल्माए गए गाने का हर शब्द सीने में चुभता है। जाने वो कैसे लोग और ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या भी इसी दर्जे के गाने हैं।
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यूं ही नहीं कोई कल्ट बन जाता है
फिल्म कल्ट क्लासिक क्यों बनी इसका जवाब है व्यक्ति का अपने सपनों के पीछे भागना और लोगों द्वारा उसे कुचल देना। शायद इसीलिए फिल्म रिलेवेंट है और इसे देखना भी चाहिए।
हालांकि पागलखाने और उसके आस-पास फिल्म थोड़ी से बॉलीवुड छाप और मेलोड्रामा दिखती है, जो माहौल को थोड़ा हल्का करता है।
फिल्म के डायलॉग भी सटीक हैं। जिन्हे अबरार अल्वी जी ने लिखा है। उदाहरण से समझना चाहो तो फिल्म का पहला डुओ सीन देखिए जिसमें विजय अखबार खाने के मालिक से बात करता है।
एक्टिंग में गुरुदत्त जी ने कमाल किया है। वहीदा रहमान और माला सिन्हा, जॉनी वॉकर समेत सभी की एक्टिंग काफी बेहतर है।
फिल्म देखनी चाहिए इसका कोई विकल्प नहीं है कब देखना है आपकी मर्जी। बस जल्दी से जल्दी देख डालिए।