I Want To Talk Hindi Review : इस हफ्ते सिनेमाघरों में Abhishek Bachchan की फिल्म I Want To Talk रिलीज हुई है।

अभिषेक बच्चन के अलावा फिल्म के साथ लीक से हटकर फिल्में बनाने के लिए मशहूर डायरेक्टर Shoojit Sircar का नाम जुड़ा है। तो उम्मीदें का बढ़ना तो लाजमी है।

I Want To Talk Hindi Review : जिंदगी में बस कुछ दिन बाकी हैं

फिल्म की कहानी अर्जुन सेन के किरदार के ईर्द-गिर्द घूमती है जिसे अभिषेक बच्चन ने निभाया है। अर्जुन पेशे से मार्केटिंग प्रोफेशनल है लेकिन कैंसर से जूझ रहा है और आखिरी दिनों में है।

फिल्म की कहानी में उसके पास जीने के लिए मात्र 100 दिन बचे हुए हैं। ऐसे में अर्जुन अपनी बेटी के साथ ज्यादा समय बिताना शुरू कर देता है। पत्नी के साथ उसका तलाक तय हो चुका है।

वह आत्महत्या के बारे सोचता है लेकिन फिर इस विचार को टाल देता है। उसके पास जीने की एक उम्मीद है उसकी बेटी जो अपने पिता के साथ अपनी शादी में डांस करने की इच्छा रखती है।

I Want To Talk Hindi Review : स्लो और लाइट मूड वाली फिल्म

डायरेक्टर शूजित सरकार फिल्म में जल्दबाजी में नहीं हैं। वे फिल्म को अहिस्ते-अहिस्ते स्क्रीन पर रखते हैं। कहानी धीरे-धीरे इंट्रो और बिल्ड अप तैयार करती है।

पहले हाफ में अर्जुन के मरीज के रुप में दर्द को दिखाने की कोशिश की गई। फिल्म हमें दिखाती है कि अगर किसी व्यक्ति के पास जीने के लिए मात्र कुछ ही महीने बाकी है, तो उसकी मेंटेलिटी कैसी होगी।

फिल्म के डायलॉग, स्क्रीन और स्टोरीटेलिंग का तरीके इतने मुश्किल टॉपिक को बहुत की लाइट मूड में रहते हुए दिखाने की कोशिश करती है। हालांकि इस समझने के लिए दर्शकों को थोड़ी सी मेहनत करनी पड़ सकती है।

I Want To Talk Hindi Review : कॉमिक टाइमिंग और पंच भी

फिल्म का दूसरा हाफ इमोशनल की बजाय हल्के मिजाज वाला है। इसमें Jhonny Lever का काफी योगदान है। उनकी प्रेजेंस और कॉमिक टाइमिंग दर्शकों को एनर्जी देती है, उनके पास अच्छे पंच हैं।

फिल्म पेस के लिहाज से पहले हाफ में ठीक लगी है लेकिन दूसरे हाफ में थोड़ा स्ट्रेच्ड हो जाता है। इसके अलावा फिल्म एक ओपनिंग एडिंग के साथ खत्म होती है, जो थोड़ा सा बेकार लगता है।

I Want To Talk Hindi Review : अभिषेक बच्चन की ठोस एक्टिंग

Abhishek Bachchan ने अपने आप को किरदार में बहुत ही बारीकी से ढाल लिया है। उनके किरदार के दो शैड्स हैं। पहले हाफ में जो व्यक्ति कीमो से डरता है दूसरे हाफ में वो उसे जीने की एक वजह मान लेता है।

कुल मिलाकर शूजित सरकार की ये फिल्म हमें उनकी पुरानी फिल्म Piku, October की याद दिलाता है। लेकिन फिल्म इतनी जोरदार नहीं लगती कि उनकी लिस्ट में इसे शामिल किया जा सके।

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प्रभा की एक साथी अनु यानी Divya Prabha है। जो गुपचुप तरीके से शियाज यानी Hridhu Haroon से प्यार भी करती है। अनु दायरे में सिमटने वे कम और पंख फैला उड़ने में ज्यादा विश्वास रखती है। 

इन किरदारों के सहारे से कहानी हमें मुंबई शहर के मायाजाल और उसमें फंसे लोगों की घुटन से रुबरु करवाती है। कहानी इससे बाहर भी निकलती है। जिसका सहारा बनता है तीसरा किरदार। 

पार्वती कहानी का तीसरा किरदार है। इसे Chhaya Kadam ने प्ले किया। जो प्रभा और अनु को अपने गांव रत्नागिरी ले जाती है। जहां उन दोनों को मुंबई शहर के अंधेरे के बाद उजाला या लाइट दिखाई देती है। पूरा रिव्यू पढ़ें…

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कहानी मई 1946 में शुरू होती है। फ्रीडम मूवमेंट खत्म हो चुका है। अंग्रेज भारत, हिंदुस्तानियों के हाथ में सौंप कर जल्दी से जल्दी यहां से निकलना चाहते हैं। शो के शुरुआती हिस्सों में नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बनते दिखाया जाता है, जो देश के पहले पीएम भी होंगे। इसी तरह कहानी मोहम्मद अली जिन्ना से भी परिचय करवाती है, जो टीबी जैसी गंभीर बीमारी से जूझ रहे हैं।

बैकग्राउंड सेटअप के बाद कहानी थोड़े-थोड़े अंतराल में पहले कलकत्ता, फिर नोआखली, फिर रावलपिंडी के कहूटा, और आखिर में बिहार की सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं को दिखाती है। 

ये घटनाओं कहानी को तेजी से पार्टीशन की तरफ ले जाती हैं। जिसके गांधी सबसे बड़े विरोधी है, जिन्ना और मुस्लिम लीग इसके हितैषी हैं। वहीं कांग्रेस की तरफ से नेहरू और सरदार पटेल सत्ता और देश के बीच असमंजस में झूल रहे हैं। पूरा रिव्यू पढ़ें…

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