Bhakshak Hindi Review: जब कोई जानवर किसी जिंदा इंसान को खा लेता है तो उसे नरभक्षी कहा जाता है। जब कोई इंसान ही इंसान का भक्षण करे तो उसे भक्षक कहा जाता है। भक्षक की ये डेफिनेशन समझना नेटफ्लिक्स पर आई फिल्म Bhashak के प्लॉट का जानने के लिए जरूरी है। 

Bhakshak Hindi Review

कहानी कुछ यूं है…

Bhakshak का प्लॉट बिहार के काल्पनिक शहर मुनव्वर पुर में बेस्ड है। कहानी पत्रकार वैशाली सिंह से शुरू होती है जो पटना शहर में एक छोटा सा न्यूज चैनल चलाती हैं। वैशाली आदर्शों और समाज को सच्चाई परोसने वाली जर्नलिज्म में बिलीव करती हैं। लेकिन मौजूदा न्यूजरूम कल्चर और उनके चैनल की लचर हालत उन्हें इसकी इजाजत नहीं देती। 

जाड़े की एक सुबह वैशाली को एक रिपोर्ट मिलती है जो वैसे तो कई लोगों की नींदे उड़ा सकती है लेकिन गहरी नींद में सोए सिस्टम के लिए यह रिपोर्ट, देर रात को गली में भौंकते कुत्ते की आवाज की तरह है। अब सिस्टम को ना सिर्फ जगाने बल्कि उसकी आंखें खोलने की जिम्मेदारी वैशाली के कंधों पर नहीं बल्कि उनके माइक और कैमरे पर है। 

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असली कहानी लेकिन ये है.

आगे की कहानी वही है जो साल 2018 में बिहार के मुजफ्फरपुर में घटी थी। 26 मई, 2018 को टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज बिहार सरकार के सामने एक रिपोर्ट रखी जिसमें दावा किया गया कि मुजफ्फर के एक शेल्टर होम में रहनी वाली बच्चियों का रेप किया जा रहा है। 

ये शेल्टर होम बिहार पीपुल्स पार्टी के नेता ब्रजेश ठाकुर का था। अगस्त 2018 में जांच हुई तो 30 से ज्यादा नाबालिग से रेप की बात सामने आई। जिसके बाद ब्रजेश ठाकुर और अन्य 11 लोगों को दोषी पाया गया। बाद में इन्हें पॉक्सो एक्ट में उम्रकैद की सजा मिली। 

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कुछ तो रह गया शायद

मुद्दे और सच्चाई से इतर सिनेमा की बात की जाए तो फिल्म सच को सच की तरह दिखाने की कोशिश करती है। हालांकि बिल्ड अप काफी बार देखा जा चुका है। सिस्टम और बाहुबली का ताना-बाना बुना हुआ है। जहां किरदार को कब उलझना है और कब सुलझना है सब तय है। 

कहानी रियल है तो प्रिडिक्टेबल तो होनी ही है। सिनेमा वाला चश्मा फिल्म में कड़वी सच्चाई के साथ जिस एंगल को देखना चाहता है वे बहुत कम ही हैं। फिल्म का पेस थोड़ा और शार्प हो सकता था। कैरेक्टर की पर्सनल लाइफ में नहीं जाना भी बेहतर होता। कुछ कॉमिक टाइमिंग भी है जो लैंड तो करती है लेकिन अवॉइडेबल हैं। 

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ये सब कुछ बेहतर है

हालांकि सोशल मैसेज वाला पार्ट इम्पैक्ट डालने वाला है। जब सुधा अपनी आपबीती सुनाते हुए शेल्टर होम के अंदर ले जाती है तो दर्शक कुछ देर के लिए सोचने पर मजबूर होता है। 

क्लाइमेक्स में भूमि का Monologue बेहतर है। जहां शून्य से लेकर संवेदनाओं तक का सफर तय करती हैं। फिल्म की यह सबसे मजबूत कड़ी भी है जो दर्शक को अपने सेंसिटिव पार्ट को ढूंढने के लिए मजबूर कर सकती है। 

पत्रकारिता के मायूस चेहरे को दिखाने के साथ साथ। एंटरटेनमेंट वाली पत्रकारिता पर जमकर निशाना भी साधा गया है। जो सही लगता है। फिल्म का म्यूजिक भी अच्छा है।

किरदार कुछ ज्यादा ही हो गए

एक्टिंग की बात करें तो Bhumi Pednekar ने डबल एक्सएल जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो मिडिल क्लास ड्रामा वाली फिल्मों में बेहतर ही काम किया। इस फिल्म में भी बेहतर हैं। लेकिन उनकी कुछ हद तक एक ही तरह का एक्सप्रेसन परेशान कर सकता है। 

उनके अलावा Sanjay Mishra को सबसे ज्यादा स्क्रीन टाइम मिला है। खैर वो तो बेहतर करते ही हैं। लेकिन उनके सीरियस एरिया को एक्सप्लोर नहीं किया गया। Aditya Shrivastav भी बढ़िया है लेकिन कम दिखे हैं। 

Sai Tamhankar और Surya Sharma जैसे बडे़ कलाकार क्यों कास्ट किए गए हैं इसका ठीक ठीक जवाब फिल्म से नहीं मिलता है। इन दोनों से बेहतर किरदार Durgesh Kumar, Satyakam Anand और Chittaranjan Tripathy के लिखे गए हैं। जो उनके साथ न्याय भी करते हैं। 

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कुल मिलाकर Bhakshak गो टू सोशल मैसेज कम ड्रामा फिल्म है। इसमें कुछ और एलिमेंट्स जोड़कर अच्छा बनाया जा सकता था। लेकिन ऐसे का ऐसा देखने में भी हर्ज नहीं हैं, बशर्ते आप सच देखने से डरते न हों।

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