Dry Day Review: क्रिसमस वीक चल रहा है और नया साल मुंह ताके खड़ा है। दौर इंजॉयमेंट का है और शराब इंजॉयमेंट की सगी है। शराब तक बात इसलिए पहुंच गई क्योंकि शराब को खारिज करने की मांग उठ चुकी है। आधी आबादी यानी महिलाएं चाहती हैं कि शराब पर पाबंदी लग जाए। ये बिहार की राजनीति की हाल नहीं है बल्कि हाल ही अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई फिल्म ड्राय डे का हाल है।

कहानी शराब पर शुरू शराब पर खत्म
फिल्म में गन्नू भैया यानी जितेन्द्र कुमार या जीतू भैया प्राइम कैरेक्टर हैं। उनका डेजिगेनेशन है गांव के नेता जी यानी दाऊ जी का कृपापात्र होना। इसी सहारे गन्नू भैया ने गांव के दो चार अपने जैसे लड़कों को समेट का एक गैंग बना लिया है। जिसका काम दाऊ जी के दो चार काम करना और देशी अंग्रेजी जो मिले वो शराब पीना है।

इसी बीच गन्नू की पत्नि निर्मला प्रेग्नेंट हो जाती है और शर्त रखती है कि बच्चे को तभी जन्म देगी जब गन्नू शराब छोड़कर एक बेहतर जिंदगी की तरफ बढ़ेगा। अपने बच्चों के लिए गन्नू हाथ पैर मारता है और गलती से शराबबंदी करवाने का वादा कर अनशन पर बैठ जाता है। आग सुलगती है और दूर तक चली जाती है। ड्राय डे फर्स्ट इम्प्रेशन से छोटे शहर की कहानी है जिसे डायरेक्टर बीच बीच में फील करवाते रहते हैं। फिल्म बिल्ड अप के लिए कई कॉमिक टाइमिंग देती है जिसमें से कुछ लैंड करती हैं तो कुछ रह जाती हैं। पेस स्लो है। गांव का सेटअप अच्छा है।

शुरू में अच्छा था फिर मजा नहीं आया
कहानी की सबसे बड़ी कमजोरी इसे कहने का अंदाज है। कॉमिक टाइमिंग के बाद ऐसी फिल्मों का सीरियस होना रिवाज है। फिल्म समस्या को सुलझा दे और दर्शक ये न कहे कि ये तो ज्यादा हो रहा तो फिल्म की सक्सेस मान ली जाती है। लेकिन ड्राय डे सीरियस होने के साथ साथ आइडियल हो जाती है और फिर बेहद बेझिल।

फिल्म का आखिरी पौना घंटा में इतना खतरनाक सीरियसपन और आइडिलिज्म के साथ साथ बचकानी सी राजनीति भरी गई है। जो फिल्म द्वारा जमाए गए पूरे बिल्ड पर भारी पड़ जाती है। फिल्म का मुद्दा अच्छा था लेकिन इसे और बेहतर दिखाया जा सकता था। इसमें डायरेक्टर सौरभ शुक्ला बुरी तरह चूक गए हैं। फिल्म का म्यूजिक अच्छा है। डायलॉग बाजी में कुछ खास नहीं है। यूपी और ब्रज की बोली को सहीं ढंग से पकड़ा गया है।

जीतू भैया को पीछे छोड़ दी श्रेया
एक्टिंग में जितेन्द्र कुमार अधपके से नजर आते हैं। हम उन्हें कई सीन्स में फंसा हुआ सा पाते हैं। श्रेया पिलगांवकर फिल्म की रीढ़ हैं। उनकी एक्टिंग में क्रिस्प है जो कहानी को आगे ले जाता है। इसके अलावा जानकी के किरदार में किरन खोजे बहुत बढ़िया एक्टिंग करती हैं। वे भी कहानी का मजबूत सिरा हैं। अन्नू कपूर अपना काम कर देते हैं। रिपोर्टर बने आकाश महामना लय पकड़ते हैं तो मजा आता है। सुनील पलवल भी ठीक लगे हैं। वहीं गन्नू की गैंग से मद्दी और कुन्ने ध्यान खींचते हैं। फिल्म का टॉपिक अच्छा है लेकिन मेकर्स का ट्रीटमेंट इस बेकार कर देता हैं। फिल्म को बिना देखा रहा जा सकता है।

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