Swatantrya Veer Savarkar Hindi Review : Randeep Hooda की फिल्म Swatantrya Veer Savarkar इस हफ्ते रिलीज हुई। फिल्म में रणदीप हुड्डा राजनेता और स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर की भूमिका निभा रहे हैं। ये बतौर डायरेक्टर उनकी पहली फिल्म है। चुनावी माहौल के बीच रिलीज हुई फिल्म को प्रोपेगैंडा बताई जा रही है।
फिल्म को लेकर कुछ विवाद भी सामने आ रहे हैं। ट्रेलर के एक सीन पर सुभाष चंद्र बोस के पड़पोते ने ऑब्जेक्शन भी उठाया है। लगभग 3 घंटे फिल्म क्या कहती है आइए जानते हैं।
Swatantrya Veer Savarkar Hindi Review
कहानी लंबी है लेकिन अच्छी है
फिल्म की कहानी 18वीं सदी में शुरू होती है। जहां गुलामी में पड़ा देश प्लेग का दंश भी झेल रहा है। इसी बीच महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव में जन्म होता है विनायक दामोदर सावरकर का।
इसके बाद कहानी थोड़ा सा बचपन दिखाती है। जिसमें वही चिर-परिचित शौर्य और साहस वाली घटनाएं घटती हैं। अंग्रेजों के लिए बढ़ते गुस्से के साथ सावरकर उम्र में बड़े होते हैं।
Swatantrya Veer Savarkar Hindi Review
3 घंटे बस सावरकर और कोई नहीं
कुछ ही देर में कहानी लंदन का रूख करती है। जहां सावरकर अंग्रेजों के खिलाफ हथियार भी उठाती है। इसी दौरान उनके कुछ साथी एक अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर देते हैं। जिसके आरोप में सावरकर को काला पानी की सजा हो जाती है।
सजा के दौर में जेल के अंदर की अलग अलग टॉर्चर टेक्टनीक दिखाईं जाती हैं। कई साल तक जेल में बिताने के बाद आती है सावरकर की बहुचर्चित और तथाकथित दया याचिका। हालांकि फिल्म इसे जस्टिफाई करने का भरकस प्रयास करती है।
जेल से छूटने के बाद सावरकर के साथ भगत सिंह और गांधी जी जैसी कई हस्तियां एक फ्रेम में दिखती हैं और देश आजादी की तरफ बढ़ती है।
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डायरेक्शन डेब्यू कैसा है…
बात शुरू करते हैं रणदीप हुड्डा से क्योंकि फिल्म के राइटर, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, लीड एक्टर सब कुछ वही हैं। उनका डायरेक्शन बढ़िया है, फिल्म हमें रियलिटी के करीब लेकर जाती है। 90’s का सेटअप बढ़िया हैं, जेल सीक्वेंस इमोशनली कनेक्ट करती है।
पहले हाफ में कहानी स्लो होती है लेकिन इसकी भरपाई दूसरे हाफ में कर दी जाती है। फिल्म के वन लाइनर्स और डायलॉग्स लैंड करते हैं और इतना लैंड करते हैं कि पॉलिटिकली डिस्टर्ब भी कर सकते हैं। हालांकि डायरेक्टर के तौर पर रणदीप को अभी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।
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जस्टिफाई क्यों करना है, ये सिनेमा है चुनाव थोड़े
फिल्म का माइनस पॉइंट है जस्टिफिकेशन। फिल्म ने कई मौकों पर सावरकर को पॉलिटकली जस्टिफाई करने की कोशिश की है। जो जरूरी नहीं थी फिल्म को अपना काम करना चाहिए था लोग क्या सोचते हैं फर्क नहीं पड़ता।
साथ ही फिल्म सावरकर की बायोपिक है लेकिन पॉलिटिकल जर्नी जैसी लगती है। उनकी पर्सनल लाइफ को बहुत थोड़ा एक्सप्लोर करती है, जो थोड़ा ज्यादा हो सकता था।
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नजर हटा सको तो हटा लो
एक्टिंग की बात करें तो रणदीप हुड्डा… क्या बात है, कैसे कैरेक्टर पकड़ना है, कितना अंदर घुसना है कोई इनसे सीखे। जिस तरीके से रणदीप ने किरदार के लिए मेहनत की है वो साफ तौर पर दिखती है। सावरकर को ज्यादा नहीं देखा गया लेकिन इन्हें देखा जाना चाहिए।
यदि रणदीप से नजर हट जाती है तो Ankita Lokhande को देख लीजिए। यमुनाबाई का किरदार उन्होंने एक दम बेहतरीन निभाया है। Amit Sial की भूमिका भी बेहतर है। इसके अलावा अन्य किरदार थोड़ी गुंजाइश छोड़ जाते हैं।
सिनेमा की आंखों से देखिए
कुल मिलाकर कहा जाए तो फिल्म पर प्रोपेगैंडा का टैग ना होता और बायोपिक सावरकर के अलावा अन्य किसी की होती तो फिल्म कुछ तो बड़ा उखाड़ सकती थी। और एक बात फील सेड फॉर रणदीप, बहुत मेहनत की लेकिन क्रेडिट नाम पर उन्हें भक्त का टाइटल दे दिया गया।
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